मेरा सच- चरण 1 जहाँ चाह वहाँ राह


बात उस समय से शुरू करती हूं जब मैं कक्षा 2 मे पढ़ती थी मैं और मेरा छोटा भाई एक ही कक्षा मे पढ़ते थे, पापा बहुत ही  कठोर उसूलो वाले थे, वो हमेशा हम बच्चो को  अव्वल देखना चाहते थे, इसलिए  बहुत व्यस्त रहने के बावजूद हर शाम को हमारी कॉपिया चेक करते थे उनके हिसाब से हर चीज परफेक्ट चाहिए थी, उनकी इसी धाक की वजह से हम डट कर पढ़ाई करते थे। पापा की धाक की वजह से घर का अनुशासन हमेशा बना रहता था।मैं शुरू से बहुत ही भावुक थी हर इंसान से बहुत जल्दी लगाव और प्रेम हो जाता, इसलिए मेरी कक्षा अध्यापिका से मुझे बहुत ही प्रेम था
वो जो कुछ भी सिखाते मै हमेशा उसे अमल करती थी। वो कॉपी मे सुलेख लिखाते थे कि सदा सत्य बोलो, अपना काम स्वयं करो, ये सुलेख न केवल कॉपी मे बल्कि मेरे मन और मस्तिष्क मे इस तरह बैठ गए कि वो वाक्य कब मेरे जीवन का हिस्सा बन गए मुझे पता ही न चला।मेरी मम्मी धार्मिक प्रवत्ति की थी
इसलिए मुझे भगवान् के भजन सिखाये इसी कारण बचपन से मुझे भगवान् पर विश्वास है। इसी तरह समय बीत रहा था और मैं पांचवी कक्षा मे आ गई।एक दिन की बात है पापा ने कहा कि राधा को तो केवल  छठी तक ही पढाई कराते है फिर सिलाई सीखा देंगे वैसे भी लड़कियों को ज्यादा पढ़ा कर क्या करना है,ये बात सुनकर मुझे रोना आ गया, मुझे पढ़ने का बहुत शौक था।लेकिन इस बारे मे पापा से बात करने की मेरी हिम्मत नहीं थी।एक दिन मैंने देखा कि पापा पैसों को लेकर चिंतित थे कुछ ही तनख्वाह मिलती थी जिसमे परिवार का पालन पोषण,दादा दादी की जिम्मेदारी और कुछ पुराने कर्ज थे ।मैं बिना कहे ही उनकी समस्या समझ गई ।हम दोनों भाई बहन जिस स्कूल मे पढ़ते थे वो उस समय के लिए बहुत महंगे थे।  
जैसे ही मैंने 5वी   कक्षा उत्तीर्ण करी और  छठी मे आई पापा उस प्राइवेट स्कूल से टीसी निकालकर ले आये और मुझे सरकारी स्कूल मे एडमिशन दिला दिया । मैं अपने भाई से बिछुड़ कर दूसरे स्कूल नहीं जाना चाहती थी
पर पापा पर दया भी आती थी कि हम दोनों भाई बहन अगर प्राइवेट मे पढ़ेंगे तो बहुत पैसे लगेंगे इसलिए मै सरकारी मे पढ़ने के लिए राजी हो गई। लेकिन किसी ने कहा है कि जहाँ चाह होती है वहां राह होती है। जिस दिन मेरा नए स्कूल मे पहला दिन था उसी दिन मेरी एक प्रिय सहेली के पापा को पता चला क़ि मेरा सरकारी स्कूल मे दाखिला हो गया है तो उन्हें और मेरी सहेली को बहुत दुःख  हुआ ,मेरी सहेली के पापा का खुद का स्कूल था जो बिल्कुल घर के बगल मे था,फिर क्या था अगले ही दिन बिना मेरे पापा से पूछे एक दिन की टीसी निकाल कर ले आये और उनके खुद के स्कूल मे फ्री मे मुझे दाखिला दे दिया।मेरे पापा उनकी बहुत इज्जत करते थे ,वो कुछ कह ही नहीं पाए फिर क्या था मैं बिना फ़ीस के वहां पढ़ने लगी। और मेरी सहेली के पापा का नाम था सत्यनारायण जी,जो बहुत ही नेक इंसान है,और हमेशा से ही लोगो की मदद करते है और मेरी सहेली का नाम गायत्री था।ये दोनों नाम ही सत्य से जुड़े है।और यही वो पहला सबूत था ईश्वर के मेरे साथ होने का।  
      सत्य नारायण जी अंकल ने न केवल मुझे अपने स्कूल मे पढ़ाया बल्कि हर उस बच्चे को पढ़ाया जो पैसों के कारण पढ़ नहीं पाता था।जहाँ कहीं भी उन्हें कोई जरूरतमंद बच्चा दिखता,वो उसे अपने स्कूल मे लाकर एडमिशन दे देते।वो एक ऐसे नेक इंसान है जो खुद तो आगे बढ़े साथ ही अपने परिवार के कई लोगो को इन्होंने आगे बढ़ाया।जैसा इनका नाम है,वैसा ही इन्होंने जीवन मे कार्य किया।मैं अपने आप को बहुत खुशनसीब मानती हूं कि मेरे जीवन के पहले ही पड़ाव मे ऐसी महान विभूति से मेरा परिचय हुआ। 

Comments

  1. Aapke is line ke ke liye Koi Shabd Nahin Hai

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  2. अच्छे और सच्चे कर्मो वाले व्यक्ति सदैव अच्छे और नेक इंसानो से परिचित होते है 🙏

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