मेरा सच-चरण 20 -अपने बच्चे को लेकर जब पहली बार गई सुसराल

17 फरवरी 1999 को बेटा हुआ और 1 मार्च 1999 से जून तक सेकंड इयर के exam चलते रहे।करीबन 5 महीने तक मैं अपने पीहर ही रही क्योकि सुसराल की स्थितियों को देखते हुए पापा मुझे  छोटे बच्चे को लेकर जल्दी वहां भेजना नही चाहते थे।5 महीने बाद जुलाई मे मेरे ससुर जी अपने पोते यानी मेरे बेटे से मिलने आये।आते ही मेरी मम्मी ने उनसे कहा-"समधी जी!अपने पोते से मिलने बहुत जल्दी आये आप!"इतनी भी क्या जल्दी थी।  थोड़े टाइम ओर रुक जाते तो शायद बच्चा दादाजी कहने जितना बड़ा हो जाता।"मम्मी  के व्यंग्य भरी बातो से वो समझ गए थे कि मम्मी क्या कहना चाह रही थी।
           मेरे ससुर जी के चेहरे पर पोते की खुशी कम और खर्चे की टेंशन ज्यादा थी।पर फिर भी लोक लाज के भय से पापा को बोल दिया कि" बहु ओर पोते को घर भेज देना। हालांकि पापा    मुझे तब तक भेजना नही चाहते थे जब तक मेरे पति मेरी और बच्चे की ज़िमेदारी नही ले लेते। ।मेरे पापा जब भी मेरे पति से इस बारे मे बात करते वो कुछ बोलते ही नही थे और  चुपचाप सुनते रहते थे।पापा को लगता  था कि लड़का भोला है ,सीधा हैं धीरे धीरे कमाने लग जायेगा तो परिवार मे भी शांति हो जाएगी।मै तो पहले ही अपने पति से बहुत प्रेम करती थी इसलिए उनकी हर कमी को मैं स्वीकार कर चुकी थी।
इसलिए मैंने अब तक उनको कुछ नही कहा।बच्चे को लेकर अपने सुसराल जाने की उत्सुकता  मुझे भी थी इसलिए बिना कोई मनमुटाव रखे खुशी खुशी वापस अपने सुसराल चली गई।
                   जुलाई 1999 को 5 महीने का बच्चा लेकर वापस अपने सुसराल  आ गई। कुछ दिन बहुत शांति  से सब कुछ अच्छे से चलता है।ससुरजी ही सब सब्जिया दूध और राशन का सामान ला रहे थे,बिल भी जमा करा रहे थे।एक दिन मैंने अपने पति को समझाया कि-"थोड़ा बहुत खर्चा आप भी कर लिया करो

ताकि परिवार मे क्लेश न हो।मेरे पति का कहना  था कि मेरे पास पैसे नही है ,मैं कहाँ से दु?
अगर पापा  मम्मी करते हैं तो कौनसी बड़ी बात है। इनके पास तो पैसा है,ये खर्च करे या मैं करू बात तो एक ही है।।मैं जो कहना चाहती थी पति समझना ही नही चाहते थे।मुझे हर समय लड़ाई झगड़े की आशंका सताती रहती थी कब यहां घमासान युद्ध हो जाये इसकी कोई गारंटी नही थी।
         बच्चे के साथ तीन महीने तो ईश्वर की कृपा से शांति से निकले ,लेकिन थोड़े दिन बाद सास ससुर ने घर का सामान लाना बंद कर दिया। एक एक करके सारे डिब्बे मे से सामान खत्म हो रहा था,मैं राह देखती कि कब ,कौन सामान लाएगा।घूंघट के कारण ससुरजी से बोल नही पाती थी।

सासु जी सप्ताह ,पंद्रह दिन मे आते थे और पति मेरी बात सुनने को तैयार नही।
           एक दिन की बात है,सुबह जब मैं अपने ससुर जी के लिए टिफिन पैक कर रही थी तभी मैंने एक चिट्ठी  लिखकर टिफिन मे रख दी।


          "चिट्ठी इस प्रकार थी-
                           आदरणीय पापा जी,
      मैं मानती हूं आपका बेटा खर्चा नही करके बहुत  बड़ी गलती करते है पर,मैंने भी कई बार इनको समझाया लेकिन ये मेरी बात भी नही सुनते ।मैं क्या करूँ ,आप भी सामान न लाओ  और आपका बेटा भी न  लाये  तो मै खाना कैसे बनाऊ? इसलिए कृपा करके शाम को  सामान  जरूर लेकर आना।
                          आपकी बहु
                               राधा
ससुरजी ने चिट्ठी पढ़ी तो शाम को सामान तो ले आये लेकिन जब 15 दिन बाद सासुजी आये तो उनके सामने उस चिट्ठी का जिक्र करके घर मे क्लेश कर दिया।और मेरे पति को बोला कि-
      "तेरी पत्नी मुझे चिट्ठी लिखती है और तुम दोनों मुझे बेवकूफ बनाते हो। बहु!मै अच्छे से समझता हूं तुम दोनों की राय एक है,जरूर तेरे पियर वालो ने सिखाया होगा कि घर मे खर्चा मत  करना इसीलिए ये खर्चा नही देता।अब तो मेरे सब्र का बांध टूट पड़ा और मैं बोली कि"पापा मेरे पियर वालो को बीच मे मत लाओ,वो क्यो ऐसा बोलेंगे।इतने मे मेरे सासुजी बोल पड़े,  बहु!थोडी लाज शर्म रखा कर,सबके सामने कैसे जवाब दे रही है।इतने मे मेरे पति भी बीच मे आ जाते है,बात इतनी  बढ़ जाती है कि दोनों बाप बेटे एक दूसरे से ऐसे भिड़ जाते हैं जैसे कोई बरसो के दुश्मन।

लड़ लड़ के सब अपने अपने काम पर चले   गए और मैं रो रो कर अपनी आँखें खराब करती रही।

एक ही सहारा था ईश्वर। ईश्वर के सामने जाकर उनसे बाते करने लगी।
अगले दिन फिर उन्ही ब्यूटी पार्लर वाले मेडम से मिलने गई जहा मैंने 20 रुपये दिन की नोकरी करी थी।उन्हें जाकर अपनी समस्या बताई,उन्होंने मुझे वहां काम दे दिया और बच्चे को भी साथ मे लाने के लिए बोल दिया।
अब वापस से मै वहां काम जाने लगी।इस बार उन्होंने मुजे 800 रुपये महीने की पगार पर रख लिया।उन दीदी ने तो मेरी मदद कर दी पर अब बच्चे के साथ वहां काम करने मे बहुत मुश्किल आ रही थी।इधर ग्राहक आते और उसी समय शुभम भी रोने लगता। किसी के यहां काम करो और उसको अच्छे से न कर पाओ,ये मुजे अच्छा नही लग रहा था।अगर किसी की नोकरी अच्छे से न कर सकू तो वहाँ से पगार लेना मेरे लिए अनुचित था। मैंने कुछ ही दिनों मे वापस काम छोड़ दिया।पर मेरा स्वाभिमान मुझे खाली बैठने की इजाजत नही दे रहा था। वही सास ससुर के ताने ओर झगड़े रह रह कर मुजे याद आ रहे थे।अब तो अक्सर मेरी पति से भी लड़ाई हो जाती क्योकि वो  न मेरी बात सुनते ओर न घर वालो की,केवल अपनी मनमानी करते थे।
एक दिन मुजे एक उपाय  सुझा कि क्यो न मैं बच्चो को ट्यूशन पढ़ा लू  ।मैंंने एक बोर्ड बनाया उस पर ट्यूशन सेंटर लिखा और उसे मेरे घर की गली के यहां लगा दिया।लेकिन दुर्भाग्य वश 4 दिन बाद ही उस बोर्ड को कोई उठा कर ले गया।मुझे फिर चिंता हो गई कि अब क्या काम करू?बड़ी विकट परिस्थिति थी कि अपने आत्म सम्मान को कैसे बचाऊ
          लेकिन जब जब इंसान अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए बेचैन होता है

ईश्वर कोई न कोई रास्ता अवश्य दिखाता है।एक हाथ से वो परीक्षा लेता है तो दूसरे हाथ से उसका रास्ता भी दिखाता है।
          "सत्यम। शिवम। सुंदरम "।।
   आगे की कहानी के लिए देखिये मेरा अगला ब्लॉग पोस्ट  मेरा सच

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