मेरा सच -चरण 23 - सुसराल ने किया जब पहली बार अलग

अब वापस अपने सुसराल आ गई और ससुरजी की इच्छा के मुताबिद अपने छोटे से कमरे मे एक तरफ रसोई का सामान जमाया।नूतन का स्टोव जो मुझे दहेज मे  मिला था

उसे सेट किया ,कुछ सामान मेरी मम्मी ने आते समय दिया ,रसोई के कुछ डिब्बे मेरी सहेली ने दिए और इस तरह मेरी नई रसोई की शुरुआत करी

।ससुरजी ओर देवर को अकेले छोड़ कर खुद के लिए अलग खाना बनाना मुझे बिल्कुल अच्छा नही लग रहा था,पर क्या करती,मन मार कर बना रही थी।क्योंकि सासु जी सप्ताह,पंद्रह दिन मे एक बार आते थे तो देवर या ससुरजी को ही खाना बनाना पड़ता था।एक दिन मेरे देवर अकेले खाना बना रहे थे तो उनको देखकर मुझसे रहा नही गया और मैं ससुरजी के उधर जाकर अपने देवर के हाथ से आटा लिया और रोटी बनाने लगी।अब तो  हर रोज शाम को पहले मेरे इधर खाना बनाती उसके बाद ससुरजी के उधर खाना बनाती।बड़ी विकट परिस्थिति थी कि न चाहते हुए भी अलग रहना पड़ा।
इस तरह दिन गुजरते गए ।जैसे तैसे दिन निकाल रहे थे ऑफिस की नोकरी तब भी कर रही थी।सुबह घर की साफ सफाई,

खाना इत्यादि करके शुभम को 10 बजे मम्मी के यहां रखने जाती,फिर वहीं से वापस बस मे बैठकर  ऑफिस जाती।शाम को मेरे बेटे को मम्मी के घर से मेरे पति साईकल पर लेकर आते

। कभी कभी तो बेटे को रात को भी मम्मी के यहां  ही रहने देते क्योकि रोज लाना ओर छोड़ना मुश्किल था ।एक बार चार दिन लगातार अपने बेटे को मम्मी के यहां छोड़ा हुआ था कि एक रात अचानक मेरी नींद उड़ गई और मेरे बेटे के पास जाने को मन इतना बेचैन हो गयाकि जैसे तैसे रात गुजारी और सुबह उठते ही मैं अपने बेटे से मिलने अपने  पीयर चली गई  और अपने सोते हुए बेटे को इतना लाड़ किया मानो कई बरसो से उसको नही देखा हो।


एक डेढ़ साल के बच्चे को अपने से  दूर रखना मेरी विवशता थी।


कुछ समय निकला,मैंने देखा कि शुरू मे तो मेरे पति  रसोई जमाने के लिये राशन का कुछ सामान  ले आये और रुचि दिखाई पर फिर धीरे धीरे सामान लाना बंद कर दिया।मै बहुत जोर देकर कहती तो थोड़ा बहुत ले आते।मैंने सोचा कि मै भी थोड़ा बहुत जो कमा रही हु उसी को घर मे खर्च कर दु,क्या फर्क पड़ता है आखिर हम दोनों एक ही गृहस्थी रूपी गाड़ी के दो पहिये है।मैं कभी दूध ,कभी सब्जी ,कभी घर का सामान कुछ भी खत्म हो जाता ,या तो खुद ले आती या फिर अपने पति को पैसे दे देती।


अब क्या था जब से मैंने घर के खर्चे मे पैसे देने शुरू किए कि मेरे पति जो खर्च करते थे वो भी बंद कर दिया।पर मैं घर मे शांति और प्रेम चाहती थी इसलिए मेरा खर्चा करना मुझे नही दुखता था।मैं अपने पति के साथ प्रेम से रहना चाहती थी चाहे इसके बदले मुझे कितना ही परिश्रम करना पड़े।प्रेम के खातिर मुझसे जितना काम कराओ मैं कर लेती थी।इस तरह मैं जो कुछ भी कमाती वो घर मे खर्च कर देती थी।इस तरह दिन गुजर रहे थे।एक दिन मैंने अपने पति को कुछ रुपये देते हुए बोला कि- इस बार बिजली का बिल आये तो चुपचाप पापा को ये रुपये दे देना पर घर मे झगड़ा मत करना।मेरे पति ने मुझसे झट से रुपये ले लिए।एक दिन सुबह सुबह जब हम नींद से उठे भी नही थे कि ससुरजी ने जोर जोर से आवाज देकर मेरे पति को बाहर बुलाया।मेरे पति ने दरवाजा खोला तो ससुरजी खड़े  थे ।बिल देते हुए कहा कि ये जमा करा देना।बिल 1000 रुपये आया,मेरे पति ने अपनी जेब से केवल 250 रुपये  ससुरजी को दिए ।इस बात पर ससुरजी बहुत भड़क गए तो मेरे पति ने कहा कि-मेरे तो एक बल्ब और एक पंखा चलता है तो ज्यादा बिल किस बात का दु?
दोनो मे इतनी बहस हुई कि दोनों पिता पुत्र हाथापाई पर आ गए,मैंंने घूंघट ओढ़े हुए दोनों को छुड़ाने की कोशिश  की ।धक्का -मुक्की मे मेरा 2 साल का बच्चा शुभम नींद से उठकर जोर जोर से रोने लग गया

ओर दोनो की लड़ाई से बुरी तरह से डर गया कि चुप कराना मुश्किल हो गया।आस पड़ोस के लोग  भी अकसर हमारे घर के झगड़ो को देखने आ जाते थे।जैसे तैसे दोनो बाप बेटे शांत होते और फिर अपने अपने काम पर चले जाते,लेकिन मैं वो दृश्य भूल नही पाती थी और काम पर भी जाती तो घंटो सोचती रहती थी।पड़ोसियों के  सामने शर्म आती थी,इसलिए आँखे चुराते हुए निकलती थी कि कही कोई मुझे  झगड़े के बारे मे कुछ पूछ न ले।
अब धीरे धीरे मुझे अच्छे से समझ आने लगा था कि मेरे सुसराल के सब लोग पक्के कंजूस थे और विशेषतौर पर मेरे पति।कोई एक दूसरे से प्रेम नही करता,केवल पैसों को बचाना ही उनका जीवन था जो सरासर गलत था। उस घर मे आपस मे प्रेम होता तो एक छोटे से बिजली बिल को लेकर इतने झगड़े नही होते।ये लोग झगड़ कर भी वापस अपने आप को नार्मल कर लेते लेकिन मैं बहुत दिनों तक अपने आप को नार्मल नही कर पाती थी।अलग रह कर भी झगड़े कम नही हुए,अब तो हम दोनों पति पत्नी भी अकसर झगड़ जाते थे।बड़े क्लेशपूर्ण वातावरण मे ही दिन गुजार रही थी। थोड़ा समय और निकला और बच्चा भी ढाई साल का हो गया,और साथ मे मेरा बी.ए. भी हो गया।
बी.ए. के बाद ऐसे माहौल मे पढ़ना अब मेरे लिए मुश्किल हो रहा था फिर भी कुछ मेरे शुभचिंतको ने हिम्मत बंधाई ओर एम. ए प्रीवियस का फॉर्म भरा ।
सत्र 2001 की बात है,मेरे सुसराल मे सासुजी ने कुछ घर मे कंस्ट्रक्शन का काम चलाया।मुझे इस बात का पता ही नही था वर्ना मैं ऑफिस से छुट्टी ले लेती।मैं सुबह अपने घर के काम से फ्री होकरऑफिस के लिए निकली थी कि सासुजी ने तेज चिल्ला कर मुझसे बोला कि-"मेडम बन कर कहाँ जा रही है?यहां घर पर मझदुरो को चाय पानी कौन कराएगा।

मैंने कहा कि-मम्मी जी मुझे आपने बताया थोड़े ही था कि आप ये काम चालू करवा रहे है।मैं अचानक छुट्टी नही ले सकती।पहले बोलना पड़ता है।इस पर सासु जी ने लड़ाई चालू कर दी और गाली गलौच करने लगे।
गुस्से गुस्से मे वो मेरे पियर वालो को गालियां देने लगे और मुझसे कहा कि-"अगर तू मेरे घर मे रही तो  तेरे दोनो भाइयो को काट कर खाने के समान होगा  यानी तुझे तेरे भाइयो की सौगंध है,मेरे घर से निकल जा।"सासुजी के ये कर्कश वचन सुनकर मुझसे बर्दास्त नही हुआ,और गुस्से से उसी समय अपने पति को कहा कि मैं अब यहां नही रहूंगी,इसी समय मैं किराये का कमरा ढूंढने  जा रही हु।पति ने मुजे रोकने की  कोशिश करी पर मैंने सोच लिया था कि मैं अब किराये पर ही रहूंगी।गुस्से गुस्से मे और आस पास कई घरों मे पूछा और इत्तफाक से एक जगह कमरा खाली मिल ही गया।मकान मालिक ने 400 रुपये किराया बताया और मैंने बिना सोचे समझे एक ही बार मे हाँ कह दी और कहा कि आज ही शिफ्ट होने आ रही हु।जल्दी से घर गई,और सामान बांधना शुरू  किया ।पति की इच्छा नहीं थी पर मेरा स्वाभिमान मुझे वहां से निकलने के लिए जोर दे रहा था।

बस फिर क्या था,पति भी जानते थे कि मुझसे खर्चा तो होता नही,और अकेला भी रह नही पाऊंगा,इसलिये इसके साथ जाना ही सही रहेगा।वो भी मेरे साथ सामान शिफ्ट करने मे लग गए।शाम होते होते सारा सामान किराये के कमरे मे चला गया।
अब क्या था,उस छोटे से किराये के कमरे मे रहने लगे लेकिन वहां भी मेरे पति ने कोई ज़िमेदारी नही उठाई,किराये से लेकर घर का सारा खर्चा मुझे ही उठाना पड़ता था।धीरे धीरे ग्राहक भी बढ़ रहे थे,लेकिन ग्राहक के पास मुझसे कॉन्टैक्ट करने का कोई साधन नही था,पहले ग्राहक मेरे पीहर मे फ़ोन करते,फिर अगले दिन मेरा भाई मुझे कहने आता और फिर उन क्लाइंट को मै किसी std से कॉल करती,तब जाकर मैं क्लाइंट से संपर्क कर पाती और तब तक तीन चार दिन हो जाते और उस बीच किसी को जरूरी होता तो वो कहीं बाहर पार्लर से करा चुकी होती थी,इसलिये बड़ी मुश्किल से कोई क्लाइंट मिल पाती थी।आफिस की नोकरी भी साथ साथ चल रही थी,1200 रुपये वहां से मिलते थे और बाकी छोटा मोटा काम पार्लर का करके घर खर्च चला लेती थी।कभी ऑटो से जाती तो कभी पति अपनी साईकल से छोड़ देते थे।मेरे पति को अपने ही घर मे दादागिरी करके,बिना खर्चा किये ही रहना मंजूर था,इसलिए किराये का कमरा उन्हें अखरता था,इसलिए आये दिन हमारे बीच झगड़े होते रहते थे और झगड़े भी ऐसे होते कि मुझ पर हाथ उठाते थे।

आस पड़ोस के लोग मुझसे अकसर सवाल करते थे कि,"क्या आपके पति शराब पीते है,जो आपको मारते है।"मैं उनके सवालो का जवाब ही नहीं दे पाती थी।
मेरा बच्चा कभी मेरे पास,तो कभी पीहर वालो के पास,तो कभी मेरी सहेली के पास,जैसे तैसे बड़ा हो रहा था।पर ईश्वर पूरी तरह मेरी हिम्मत बनकर मेरा साथ दे रहे थे क्योंकि सच का साथ केवल ईश्वर ही दे सकता है।
"     सत्यम।   शिवम।   सुंदरम।"

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