मेरा सच चरण 30 -सत्य अकेला ही होता है।

ढाई साल हो गए मेरे पति को घर से गये हुए।इन ढाई साल मे उन्होंने कभी भी मुझसे और मेरे बच्चे से संपर्क तक नही किया और न ही कोई फ़ोन किया।लेकिन इन ढाई साल मे कोई दिन ऐसा नही गया जिसमें मैंने उनको याद नही किया होगा।
हालांकि उन्होंने मुझसे और मेरे बच्चे से जो व्यवहार किया,उसके हिसाब से मेरा उनको भूल जाना ही सही था,पर फिर भी मै नही भूल पाई।इन ढाई साल मे मुझे दुनिया के कई तरह के अनुभव प्राप्त हुए।
मै पहले सोचती थी कि दुनिया वैसा ही सोचती है जैसा मैं सोचती हूं।मेरी नजर मे हर इंसान सच्चा और ईमानदार दिखता था,लेकिन जैसा मैंने सोचा वैसा कुछ नही था।ये दुनिया तो बड़ी रंगीन है।यहां  सच का साथ कोई नही देता।यहाँ हर आदमी दिखावे मे जीता है।समाज मे अपने को अच्छा दिखाने के लिए गलत को भी स्वीकार कर लेता है।यहाँ लोग दुनिया को दिखाने के लिए झूठा रो भी लेते है,और झूठा हंस भी लेते है।
             मेरे कुछ रिश्तेदार ऐसे थे जिनसे मेरा बहुत अच्छा रिश्ता था,और वो लोग मेरे बारे मे सब कुछ जानते थे।मैंने  सोचा कि ये सब मेरे अपने है जो हमेशा मेरे सच की लड़ाई मे मेरा साथ देंगे।लेकिन ऐसा कुछ नही था।किसी ने भी मुझे प्रोत्साहित नही किया कि तूने बिल्कुल सही किया है,और गलत का विरोध करना ही चाहिए।बल्कि कई लोग तो मुझ पर शक करने लगे।कई तरह की बाते समाज मे होने लगी।यहाँ तक कि कई लोग तो ये कहने लगे कि,मैं सुसराल मे अपना हक लेने के लिए अपने पति के साथ मिलकर कोई नाटक खेल रही हु,जबकि मेरा सुसराल के घर और उनकी संपत्ति से कोई लेना देना नही था।मैं तो सिवाय प्रेम के कुछ चाहती ही नही थी।कई लोगो ने तो ये भी विश्वास नही किया कि मेरे पति मेरे साथ अब नही रहते है ,कई लोग मुझसे पूछते थे कि क्या तुमने अपने पति से तलाक ले लिया है।तलाक शब्द सुनते ही ऐसा तीर चुभता था जैसे एक पंछी को घायल कर दिया हो।मैं ऐसे लोगो को कैसे समझाऊ कि ,अंतरात्मा मे बैठे हुए इंसान को क्या कागज के एक टुकड़े से दूर कर सकते है।कैसे समझाऊ कि मैने जिससे प्रेम किया है,मैंने उसी के खिलाफ युद्ध लड़ा है।खेर मेरी बातों को किसी को समझाना मेरे बस मे नही था।जब इस तरह  लोगो से तरह तरह की बाते सुनती थी तो बहुत पीड़ा होती थी,कई बार तो मैं हर एक को अपनी कहानी बताती थी तो कई बार लोगो से  बहस भी करती थी।लेकिन दुनिया को सच समझ मे ही नही आता था।धीरे धीरे मुझे एहसास हुआ कि ये दुनिया तो बरसो से ही ऐसी थी,जब सीता और मीरा का समय था,तब कौनसा इस दुनिया ने उनकी सच्चाई पर विश्वास किया जो वो अब मेरी सच्चाई पर विश्वास कर लेंगे।
मैं अजीब सी उलझन मे थी,कभी लगता किसी के यहाँ न जाऊ, किसी से रिश्ता न रखु, लेकिन फिर सोचा कि मैं दुनिया से डर कर क्यों भागू जबकि मैंने कुछ गलत नही किया।गलत तो मेरे पति ने किया है,अपने आप के साथ,अपने परिवार के साथ,डरे तो वो डरे।मैं हिम्मत करके दुनिया का सामना करने लगी और सामाजिक कार्य मे जाने लगी।लेकिन जब भी मैं किसी के कार्यक्रम मे जाती,लोग मुझे इस तरह देखते जैसे मैं कोई अलग ही दुनिया से आई हूं।बहुत अजीब महसूस होता था लेकिन फिर अपने आप को समझाती कि ,मैंने जो रास्ता अपनाया है वो सच्चाई का है और इस रास्ते मे जो चलता है वो दुनिया से अलग ही तो दिखेगा यही सच की कठोर परीक्षा है।
समय बीतता जा रहा था,एक उम्मीद हमेशा रहती थी कि कभी तो मेरे पति  को सदबुद्धि आएगी और वो सही रास्ता अपना लेंगे।लेकिन वो उम्मीद  भविष्य मे कितनी सच होगी,ये मै नही जानती थी ।अब तो इस रास्ते को काफी हद तक पार कर चुकी थी,इसका परिणाम तो केवल ईश्वर के हाथ मे था।लेकिन एक बात का द्रढ़  निश्चय कर चुकी थी कि चाहे अब मेरी गृहस्थी वापस जुड़े या ना जुड़े,लेकिन अब हार नही मानूँगी,और मरते दम तक गलत का साथ नही  दूंगी।
एक दिन की बात है,मैं पार्लर के काम से जा रही थी,अचानक रास्ते मे मैंने अपने पति को जाते हुए देखा,एक झलक ही मैंने उनकी देखी थी,कि उनकी हालत देखकर मेरे हाथ पांव  ढीले पड़ गए।ऐसी शक्ल बना रखी थी ,बाल बढ़े हुए थे,वो ही पुराना गंदा सा शर्ट पहन  रखा   था ।लालच ने उन्हें इतना अंधा बना दिया था कि वो अपने आप को ही भूल गए थे कि वो क्या है,उनका जीवन क्या है।मैने एक जगह अपनी स्कूटी रोकी और अपने आंसू पोंछे।और वापस अपने आप को हिम्मत दी कि जो स्थिति अपने हाथ मे नही है,उस पर विचार करना व्यर्थ है।मेरे पति अगर समझते तो इतने साल साथ रहकर ही समझ जाते।यही सोचकर वापस अपने काम की और चल पड़ी।
दिन गुजरते जा रहे थे,मै अपना ध्यान अपने कार्य मे लगा कर ,अपने बच्चे  के लिए जीवन को खुशी से जी रही थी क्योंकि मेरा बेटा पूरी तरह से सकारात्मक सोचता था और मुझे भी सकारात्मक सोचने के लिये बोलता था।वो हर परिस्थिति को ईश्वर की मरझी समझकर उसको  स्वीकार करने मे ही अपनी खुशी मानता था।वो खुद तो अच्छा सोचता  है और मुझे भी सिखाता है,ऐसा लगता  है मानो ईश्वर ने  मुझे प्रेरित करने के लिए ही मेरे जीवन मे उसे भेजा है।फिर भी एक औरत का दिल तो बड़ा ही नाजुक होता है,वो रिश्तों को आसानी से भूल नही पाती है।मैं फिर भी कई बार अपने सुसराल वालो को याद करके अकेले मे  रोती थी।पर क्या करूँ,अपने आप को वचन जो दिया था कि गलत का साथ कभी नही दूंगी।इसलिए सुसराल वालो को और अपने पति को धीरे धीरे भुलाने की आदत डालने लगी।
दूसरी तरफ अपने पीहर वालो से भी मुझे बहुत प्यार है।अपने भाई बहनों और अपने माता पिता के प्रति शुरु से ही मुझे लगाव है।और पापा के जाने के बाद कई बार स्वप्न मे आकर पापा बोलते थे कि ,राधा,तू घर मे सबसे बड़ी है,इसलिए अपनी मम्मी और भाई बहनों का हमेशा ध्यान रखना और मेरे घर की सुव्यवस्था को हमेशा बनाये रखना।सपने मे कहे उनके वाक्य मेरे लिए किसी ईश्वर के आदेश से कम नही थे,इसलिए मैंने उनकी बात को हमेशा ध्यान मे रखते हुए हमेशा अपने भाई बहनों का ध्यान ही नही रखा बल्कि अपने दिल से भी कभी दूर नही किया।
मैंने सच्चे दिल से अपने भाई बहनों से प्रेम किया और इसी कारण कई बार उनको हक से डांट भी देती थी।लेकिन धीरे धीरे मेरे सच और उसूलों के कारण मेरे भाई बहन भी मुझसे  परेशान हो गए।वो जानते थे कि मै जो कुछ भी कहती हूं या करती हूं,वो एकदम सही है,पर उसे स्वीकार करना उनके लिए बोझ था।वो चाहते थे कि मैं भी दुनिया की तरह ही चलू।किसी को खुश करने लिए  झूठ मुठ का प्रेम भी दिखा दु और किसी के मरने पर झूठा दिखावा भी कर लूं,पर ये मेरे बस का नही था।मैं तो वो ही करती जो असल मे चल रहा होता है।सही को सही और गलत को गलत कहना ही मेरा नियम था,और ऐसा नियम निभाने मे अगर किसी के दिल को चोट लगती है तो मैं उससे क्षमा याचना भी कर लेती हूं पर सच को बोले बिना नही रहा जाता।
मेरी इसी सच्चाई के कारण एक बार पीहर मे भाभी ने मेरी एक बात का इतना इशू बना दिया कि घर मे झगड़ा हो गया।हालांकि मेरे सभी भाई बहन को मेरी बात और सच्चाई पर पूरा भरोसा था,फिर भी उनकी शिकायत ये थी कि मैं किसी को कुछ न कहु चाहे बात कितनी भी सच्ची हो,बस चुप रहू।उस दिन के बाद  मेरा मन बहुत दुखी हुआ और घर आकर ईश्वर के सामने बैठकर बहुत रोई और उनसे पूछा कि क्या इस दुनिया मे सच के साथ चलना और बोलना गुनाह है?थोड़ी देर रोने के बाद मेरी नजर सामने पड़ी गीता की किताब पर पड़ी,और मुझे याद आया कि सत्य तो दुनिया मे अकेला ही होता है,अगर कोई सच के साथ होता है तो वो केवल कृष्ण ही होता है,वो केवल नारायण ही होता है।उस दिन के बाद मैने सोच लिया कि चाहे सारी दुनिया,सारे रिश्ते नाते छूट जाए तो गम नही,सत्य कभी ना छुटे।जैसे जैसे रिश्ते छूटते जा रहे थे मैं ईश्वर के और करीब महसूस कर रही थी।मैंने अपने आप को गीता की उन पंक्तियों के साथ समझाया कि,जो हुआ अच्छा हुआ,जो हो रहा है अच्छा हो रहा है और जो होगा वो भी अच्छा ही होगा।

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