श्रीमद भगवत गीता और भागवत महापुराण मे अंतर
कल युग के आरंभ मे शुकदेव मुनि ने जो ज्ञान राजा परीक्षित को दिया था,वो भागवत पुराण है।
भगवत गीता मे ज्ञान का अध्भुत भंडार है,जिसे समझना कठिन है,परंतु भागवत महापुराण मे श्री कृष्ण की समस्त लीलाओं का वर्णन है,जो आसानी से इंसान समझ सकता है।भगवत गीता मे जहाँ ज्ञान,बुध्दि और मन के नियंत्रण पर जोर दिया है,वहीं भागवत महापुराण मे श्री कृष्ण के प्रेम का रसपान करने पर जोर दिया है।ज्ञान को समझने के लिए बुद्धि को विकसित करना पड़ता है,पर प्रेम को समझने के लिए बुध्दि की आवश्यकता नहीं होती।एक पागल भी प्रेम कर सकता है,पर एक पागल ज्ञान ग्रहण नहीं कर सकता।इसलिए इंसान को सरल तरीके से अपने जन्म मरण को सुधारना है तो भागवत महापुराण की कथाएँ सुननी चाहिए,क्योंकि इससे सरल ईश्वर तक पहुंचने का कोई और माध्य्म है ही नहीं।
जहाँ भगवत गीता इंसान को जीने के मार्ग बताती है तो वहीं भागवत महापुराण जन्म और मरण दोनो के मार्ग बताती है।
कई लोगो का ये प्रश्न होता है कि श्री कृष्ण ने भगवत गीता मे युद्ध करने की सलाह क्यों दी?वो चाहते तो युद्ध को रोक सकते थे।ये प्रश्न पहले मेरे मन मे भी था,लेकिन कहते है कि भगवत गीता मे इंसान के हर प्रश्न का उत्तर है।मैने भी जब गीता पढ़ी तो मुझे भी इसका उत्तर मिला।
मै जो कुछ भी बता रही हु,ये मेरा अनुभव है,और ये अनुभव गीता पढ़ने के बाद स्वतः ही आ जाता है।
जिस तरह जन्म के साथ ही मृत्यु का संबंध भी बन जाता है,निर्माण के साथ संहार भी जुड़ा हुआ है उसी प्रकार इस संसार मे न्याय अन्याय,नीति अनीति,हानि लाभ,सत्य असत्य,अच्छा बुरा आदि एक साथ ही जन्म लेती है।विधाता ने ही इस पूरे चक्र को रचा है।सृष्टि के आरंभ से ही ये विधान है कि सत्य को अपनी सत्यता के लिए असत्य से लड़ना ही पड़ता है।नीति को अनीति से ,अच्छाई को बुराई से युध्द करना ही पड़ता है,यही कर्मो का सिद्धांत है।
बिना बुराई से युद्ध किये संसार मे अच्छाई नहीं आ सकती,बिना असत्य से युध्द किये सत्य की स्थापना नहीं हो सकती,बिना अनीति से युद्ध किये नीति का सिद्धान्त लागू नहीं हो सकता,इन सबसे लड़कर ही न्याय मिल पाता है ।जो सच्चे वीर होते है,उनका ये कर्तव्य होता है कि गलत का सामना करके युध्द लड़ा जाए और युध्द लड़ते समय मोह का त्याग किया जाए।क्योंकि मोह का भाव आते ही इंसान के हथियार छूट जाते है जैसे महाभारत मे अर्जुन के छूट रहे थे।जब असत्य और बुराई के खिलाफ युद्ध लड़ा जाता है तब अपनो के प्रति जो सहानुभूति होती है,उसका त्याग करना पड़ता है,तभी सत्य को जीत मिलती है।सत्य के युद्ध के बाद क्या हासिल होगा,इस भावना का भी त्याग करना पड़ता है क्योंकि इस युद्ध मे जीतने के बाद जरूरी नहीं कि इंसान जो चाहता है वो ही उसे प्राप्त हो,क्योंकि सत्य असत्य,न्याय अन्याय के इस युध्द मे जो जीत होती है,वो अकेले केवल उस योद्धा की नहीं होती है बल्कि वो जीत पूरे देश की होती है,इतिहास की होती है।वो जीत संसार के आदर्शों की होती है,वो जीत सिर्फ कृष्ण की होती है।
इसलिए श्री कृष्ण ने अर्जुन को जिस युद्ध की सलाह दी थी,वो स्वयं उनकी एक लीला थी,और ईश्वर की लीला मे किसी का योगदान होना बहुत सौभाग्य की बात होती है।अर्जुन ही एक ऐसे पात्र थे जिनको इतिहास की रचना मे अपना महत्वपूर्ण योगदान देने का अवसर मिला।लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि संसार के लोग अपने रिश्ते नातो से,अपना अधिकार लेने के लिए लड़ते रहे,क्योंकि कई युगों के बाद अर्जुन जैसा महान योद्धा पैदा होता है जो अन्याय के खिलाफ लड़ता है।अन्याय के खिलाफ लड़ना सबके बस की बात नहीं होती है,जो लड़ सकता है,उसी को कृष्ण ऐसी सलाह देते है।
भगवत गीता तो एक ऐसा माध्य्म है जो संसार को कर्मो के सिद्धांतों के बारे मे समझाती है कि किस तरह संसार के मोह बंधनो से छूटकर अपने कर्तव्यों का पालन करें।अपने हर कर्म को ईश्वर को समर्पित कर दे,उसके फल के बारे मे नहीं सोचना है।कल क्या होगा,ये चिंता भी ईश्वर को ही दे।हर क्षण को ईश्वर का दिया हुआ उपहार समझकर जिये,कुछ भी खाए ईश्वर को अपर्ण करके खाये,कुछ भी बोले उनकी आज्ञा लेकर बोले। यहाँ तक कि किसी से झगड़ा भी करने जाए तो उसको भी ईश्वर को सौंप दे,अच्छा बुरा जो भी होगा ,उसका उत्तरदायित्व ईश्वर पर होगा।
हम हर छोटी से छोटी चीज को ईश्वर के लिए ही करेंगे तो हम कभी किसी कर्म बंधन मे नहीं बंधेंगे,वो सारे कर्म ईश्वर के हो जाएंगे।
गीता हमें हर बंधन से मुक्त रहने का ज्ञान देती है,मन के नियंत्रण की शक्ति देती है,हर अति चीज से बचाती है,डर को जीतने की शक्ति देती है,वर्तमान को ही अपना मानने की सीख देती है,भूत भविष्य की कल्पना से बचाती है।लालच से दूर रखती है।मोह का त्याग कराती है।इस प्रकार भगवत गीता जीवन के मूल्यों का ज्ञान सिखाती है।गीता को समझना कठिन है,केवल लगातार इसका अभ्यास करने पर ही हम इसको सीख सकते है।श्री कृष्ण ने कहा है कि कोई भी कार्य ऐसा नहीं है जो अभ्यास से पूरा न हो।अभ्यास ही असम्भव को संभव बनाता है।
आइए,हम सब भी इस अभ्यास को करें और गीता के महत्व को अपने जीवन का हिस्सा बनाये।
ईश्वर को ये पता था कि कल युग मे लोग गीता को समझ नहीं पाएंगे इसलिए उन्होंने मानव के उद्धार के लिए पहले ही भागवत महापुराण की व्यवस्था कर दी।
भागवत महापुराण कल युग मे अपना उद्धार करने का सबसे सरल माध्यम है।
इसमें भगवान की जितनी लीलाए होती है,उसको सुनने और पढ़ने का विधान है।ईश्वर की अलग अलग लीलाओं को सुनकर इंसान के अंदर ईश्वर के प्रति प्रेम जाग्रत हो जाता है,जिससे वो भजन और कीर्तन मे रुचि लेने लगता है,ये ही भजन ईश्वर के दर्शन कराने मे इंसान की सहायता करता है।कई लोगो को ये भ्रम है कि मरने के बाद तो वैसे भी इंसान ईश्वर के पास ही जाता है,फिर भजन करने से क्या फायदा।अगर वो ऐसा सोचते है तो वो गलत सोचते है,क्योंकि मरने के बाद वो ही व्यक्ति ईश्वर तक पहुंच पाता है,जिन्होंने जीवन मे रहते हुए भगवान से प्रेम किया हो,उनकी लीलाओं के प्रति रुचि रखी हो।
ईश्वर ने मानव जीवन दिया ही इसीलिये है कि वो ज्यादा से ज्यादा भगवान का भजन कर सके,बाकी किसी प्राणी को ये लाभ नहीं मिल पाता।इस जन्म को पाने के लिए ही इंसान को कितने हजारो वर्षो तक भटकना पड़ता है।भगवान इंसान के प्रति बहुत दयालु है,वो स्वयं उसके उद्धार की व्यवस्था पहले ही कर देता है,बस चलना तो इंसान को ही पड़ता है।
भागवत महापुराण की कथा
कल युग के आरंभ मे जब कल युग राजा परीक्षित के सिर पर बैठ गया था तो उनकी बुद्धि भ्रष्ठ हो गई थी,इसलिए जंगल मे शिकार खेलते समय जब उन्हें प्यास लगी तो वो ऋषि शमीक के आश्रम मे गए,उस समय ऋषि शमीक अपनी तपस्या मे लीन थे।राजा परीक्षित ने बार बार ऋषि से पानी मांगा पर वो ध्यान मग्न थे,इसलिए उन्होंने सुना नहीं, इस पर राजा को क्रोध आया और उन्होंने गुस्से मे आकर एक मरा हुआ सांप ऋषि शमीक के गले मे डाल दिया
।फिर भी उनका ध्यान नहीं टूटा,पर आश्रम मे रहने वाले उनके कुछ शिष्यों ने जब ये देखा तो वो सब शमीक ऋषि के बेटे श्रृंग ऋषि के पास गए और उन्हें ये वृत्तान्त सुनाया।श्रृंग ऋषि उस समय नदी मे स्नान कर रहे थे,अपने पिता के इस अपमान से वो क्रोधित हो उठे और उन्होंने वहीं से अंजली मे पानी भरकर राजा परीक्षित को श्राप दे दिया कि जिसने मेरे पिता का अपमान किया है,
आज से सातवे दिन ही तक्षक नाग के काटने से उसकी मृत्यु हो जाएगी।
जब शमीक ऋषि अपनी ध्यान मुद्रा से बाहर आये और उन्हें अपने बेटे के इस भयंकर श्राप का पता चला तो वो बहुत दुःखी हुए,क्योंकि राजा परीक्षित ही उस समय एक ऐसे राजा थे जो धर्म परायण थे,लेकिन उनके मुकुट पर बैठे कल युग के प्रभाव से उनकी बुद्धि कुछ समय के लिए हर ली गई।
उधर राजा परीक्षित ने अपने महल मे आकर जैसे ही मुकुट उतारा कि उन्हें अपनी गलती पर पछतावा हुआ।वो शमीक ऋषि से माफी मांगने के लिए जाने ही वाले थे कि शमीक ऋषि स्वयं उनके महल मे आ गए।शमीक ऋषि को देखकर राजा अत्यंत ग्लानि से भर गए और उनसे अपने किये की माफी मांगी।शमीक ऋषि उनके इस अपराध के लिए राजा को दोषी नहीं मानते थे,क्योंकि उन्हें पता था कि जो भी हुआ है,कल युग के प्रभाव के कारण हुआ है।परंतु उनके पुत्र द्वारा दिये हुए श्राप के बारे मे अत्यंत दुःख जताते हुए राजा को बताया।उन्होंने राजा परीक्षित को कहा कि अब तुम महलों और परिवार का मोह छोड़कर अपने जीवन मरण के उद्धार के लिए प्रयास करो,क्योंकि तुम्हारे पास अब केवल सात दिन ही जीवन के बचे है।राजा परीक्षित ने इस दंड को ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकार किया और ऋषि शमीक से अपने उद्धार के लिए उपाय पूछे।ऋषि शमीक ने उसी समय राजा को ये आदेश दिया कि तुम शुकदेव मुनि के पास जाओ,वो ही तुम्हे जीवन के उद्धार का मार्ग बताएंगे।राजा परीक्षित उसी समय अपना सब मोह त्याग कर शुकदेव मुनि के पास गए और उनसे अपने उद्धार का मार्ग पूछा।
शुकदेव मुनि राजा के इस जिज्ञासु भाव से बहुत खुश हुए और उन्होंने पहले तो भागवत महापुराण की महत्ता बताई कि जो भी इंसान अपने जीवन मे या अपने जीवन के अंत समय मे भी भागवत की शरण ले लेता है तो उसके समस्त पापों का नाश हो जाता है।भागवत महापुराण को शुकदेव मुनि ने पापतारिणी बताया है।शुकदेव मुनि ने ये भी बताया कि इस कथा को सुनने वाला बहुत भाग्यशाली होता है।कई लोगो को तो इस तक आने का मार्ग ही नहीं मिलता।
शुकदेव मुनि ने भागवत को कथा अमृत बताया गया जिसका पान करके इंसान अमर हो जाता है।
शुकदेव मुनि ने सबसे पहले श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन किया,उसके बाद उनके सब अवतारों की विस्तृत व्याख्या की और सात दिन मे सम्पूर्ण कथा का विवरण दिया।
इस प्रकार शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित के जीवन के अंतिम दिनों को भागवत का लाभ देकर उनको मुक्ति दिला दी जो असल मे अमरता का ही वरदान है।जो आत्मा मुक्त हो जाती है,वो न तो जन्म लेती है और न मरती है,इसलिए उसे अमर होना कहा है।
भागवत कथा महापुराण के माध्यम से पूरे संसार को यही एक संदेश दिया है कि हर इंसान के जीवन मे सात दिन ही होते है,इन्हीं सात दिनों के अंदर सबकी मृत्यु निश्चियत है।इसलिए अपना लोक और परलोक सुधारने के लिए इंसान को भागवत कथा का श्रवण करना चाहिए।
विशेष-हमारे जीवन का प्रारंभ भगवत गीता से शुरू होकर भागवत महापुराण तक समाप्त हो जाता है।अर्थात इन दोनों के मध्य ही हमारा पूरा जीवन टिका है।
भगवत गीता जीवन सुधारती है और भागवत महापुराण मरण सुधारता है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
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