मीराबाई- कैसे बनी कृष्ण भक्त


मीराबाई इतिहास की एक ऐसी महिला  भक्त थी जो संसार मे आज तक दूसरी कोई नहीं हुई।जहाँ जहाँ श्री कृष्ण का नाम लिया जाता है,वहाँ वहाँ मीराबाई का नाम जरूर लिया जाता है।
मीरा बाई का जन्म जोधपुर के पास कुड़की मे हुआ था।इनके पिता का नाम राव रतनसिंह और माता का नाम वीर कुमारी थी।बचपन मे ही मीराबाई की माता का देहांत हो गया था,इसलिए उसका लालन पोषण उसके दादा राव दूदा ने किया था।राव दूदा ने मेड़ता राज्य को बसाया था।उनके दो पुत्र थे।एक का नाम वीरमदेव और दूसरा राव रतन सिंह थे।राव दूदा ने इन दोनों भाइयों को आस पास के कई नगर दे दिए। मीरा बाई के पिता ने कुड़की को अपना राज्य बनाया और वहीं बस गए।इसलिए मीरा का जन्म स्थान कुड़की बताया गया है लेकिन मीरा बाई की माँ के स्वर्ग सिधारने के बाद उनके दादा ने उनको अपने पास मेड़ता बुला लिया ,इसलिए कई लोग मेड़ता को भी मीरा बाई के जन्म से जोड़ते है।
       मीरा बाई की भक्ति की शुरुआत उनके जन्म के कुछ वर्षों बाद ही शुरू हो गई थी।एक बार की बात है।मीराबाई करीब 7 या 8 साल की होगी तब उनके घर के बाहर किसी की बारात जा रही थी।सब लोग दूल्हे को देखने के लिए अपनी अपनी छतों पर गए,तब मीराबाई भी अपनी माँ के साथ छत पर बारात देखनी गई।अचानक मीरा बाई ने अपनी माँ से पूछा कि,माँ!मेरा दूल्हा कहाँ है।जब भी कोई छोटा बालक बड़ो से कुछ ऐसा प्रश्न पूछ लेता है जिसका उत्तर देना समझ मे नहीं आता है तो माता पिता अपने बच्चे को समझाने के लिए कुछ भी बोल देते है।मीराबाई की माँ ने भी उनको एक साधु के हाथ मे देखी कृष्ण की मूर्ति की तरफ इशारा करते हुए बोल दिया कि,वो उस साधु के हाथ मे जो है वो ही तेरा दूल्हा है।
किसको पता था कि माँ की बात को मीरा बाई इतनी गंभीरता से ले लेगी वो हमेशा के लिए कृष्ण को अपना पति समझ बैठेगी।उसी दिन से मीरा बाई कृष्णजी को अपना दूल्हा समझकर उनसे प्रेम करने लगी।

       यहाँ विशेष एक बात पर जोर देती हूं कि बारात मे जो साधु कृष्ण की मूर्ति लेकर चल रहा था ,वो स्वयं कृष्ण जी का भेजा हुआ एक दास था।कृष्ण जी ने मीरा बाई का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उस बारात को एक माध्यम बनाया।वो साधु मीराबाई के लक्ष्य की एक डोरी थी।जिसे भगवान अपने भक्त के हाथ मे पकड़वाना चाहते थे।भगवान एक डोरी रूपी मार्ग हमें बता देते है,उसके बाद उस डोरी को पकड़कर चलना इंसान को ही पड़ता है।कृष्णजी ने मीराबाई को डोरी पकड़ा दी और मीराबाई उसी डोरी के सहारे चलती गई।
      कुछ समय बाद मीराबाई की माता का देहांत हो गया और वो अपने दादा रावदूदा के यहाँ मेड़ता चली गई।रावदूदा भी भगवान की बहुत आराधना करते थे,और इसी कारण मीराबाई को भगवान के भजन और कीर्तन सुनने का भी अवसर मिल गया।अब तो मीराबाई रोज अपने दादा के साथ भगवान के भजन गाती और आसपास मंदिरों के दर्शन भी करती रहती।इसी तरह धीरे धीरे मीराबाई बड़ी हो गई।उनका विवाह उदयपुर के राजा भोज के साथ कर दिया जो महाराणा  सांगा के पुत्र थे।लेकिन मीराबाई इस विवाह से खुश नहीं थी क्योंकि वो तो अपने आप को पहले ही कृष्ण जी की पत्नी मान चुकी थी।फिर भी अपने परिवार की बात मानकर उसने विवाह तो कर लिया पर वहाँ भी वो कृष्ण की मूर्ति को साथ लेकर गई।वो अपने रोज के नियम के अनुसार श्री कृष्ण की पूजा,भजन इत्यादि करती  रहती थी।

उनकी ये आदते उनके सुसराल वालो को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी । उनके पति उनकी कृष्ण भक्ति का आदर करते थे पर उनकी राजपूत परम्परा मीराबाई को इस तरह किसी पुरुष प्रतिमा  को पूजने का आदेश नहीं देती थी।इसलिए राजा भोज ने अपनी पत्नी मीराबाई को ये सब छोड़ने को कहा।
लेकिन मीराबाई तो कृष्ण की दीवानी हो चुकी थी,उन्होंने अपने पति की इस बात को स्वीकार नहीं किया।
कुछ साल बाद ही मीराबाई के पति की मृत्यु हो गई।अपने पति की मृत्यु के बाद अब वो स्वतंत्र हो चुकी थी,इसलिए अब वो अपने भजन महलों के बाहर जाकर भी करने लगी।कई साधु संत उनके भजन सुनने के लिए उनके आस पास बैठते थे।मीराबाई के भजनों और नृत्य की कीर्ति पूरे भारत मे फैल गई।बड़े बड़े राजा महाराजा उनके नृत्य को देखने आते थे।

एक बार मुगल सम्राट अकबर जो एक मुस्लिम समुदाय के होते हुए भी मीराबाई से वेश बदलकर मिलने आये।मीराबाई की कृष्ण के प्रति इतनी तल्लीनता देखकर वो इतने खुश हुए कि उन्होंने तुरंत अपना एक हार श्री कृष्ण की मूर्ति पर चढ़ा दिया।जिसकी खबर चारो तरफ फैल गई और इस कारण कई लोग मीराबाई से नाराज भी हो गए।मीराबाई श्री कृष्ण की मूर्ति के आगे घंटो नाचती रहती थी।

ये सब उनके सुसराल वालो को अच्छा नहीं लगा।मीराबाई के सुसराल वालो ने कई तरह से उनको यातनाये देना शुरू की।कई बार मारने की कोशिश करी,लेकिन हर बार वो कृष्ण की सहायता से बच जाती थी।एक बार मीरा बाई के देवर ने उन्हें जहर का प्याला दिया।मीरा बाई श्रीकृष्ण का नाम लेकर वो जहर का प्याला पी गई।श्री कृष्ण ने उस जहर को अमृत कर दिया और वो बच गई।

लेकिन अब मीराबाई को अपने सुसराल वालों से नफरत हो चुकी थी।उन्होंने अपना सब राजसी वैभव छोड़कर भगमा वस्त्र धारण कर लिए और अपने कृष्ण की खोज मे निकल पड़ी।रास्ते मे उनकी भेंट संत रैदास से हुई जो मीराबाई के गुरु बने।
       कहते है कि अगर हमारा रास्ता सही होता है तो हमे कोई न कोई माध्यम मिल जाता है जो हमे हमारी मंजिल तक ले जाता है।मीराबाई के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ,संत रैदास ने मीराबाई को भक्ति की शिक्षा दी जिसके फलस्वरूप मीराबाई ने कई कविताएं और काव्य लिखे जिसमे कृष्ण का वर्णन है।

उसके बाद मीराबाई वृदांवन गई,वहाँ भी अपनी भक्ति की लहर जगाई।लोग उनके भजनों के इतने दीवाने थे कि उनके पीछे पीछे वो भी भजन का आनंद लेते हुए बहुत दूर तक उनके साथ साथ चलते रहते थे।अंत मे मीराबाई द्वारिका गई और वहाँ श्री कृष्ण की मूर्ति मे समा गई।ये एक ऐसी अनोखी घटना थी जिसको आज तक कोई समझ नहीं पाया।

       भक्त और भगवान के बीच के संबंध को संसार कभी नहीं जान सकता,बस एक इतिहास बनकर जरूर रह जाता है।युगों युगों तक भक्त का नाम अमर हो जाता है जो मीराबाई का हुआ था।

      

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