निंदा और तारीफ- कितना सही कितना गलत
निंदा और तारीफ-कितना सही कितना गलत
निंदा दो तरह की होती है।एक वो जो सामने की जाए और एक वो जो पीठ पीछे की जाए।सामने की जाने वाली निंदा सामने वाले को जीवन के मार्ग बताती है लेकिन पीठ पीछे करने वाली निंदा स्वयं का नुकसान करती है।पीठ पीछे वाली निंदा को पाप माना है।लेकिन कई बार सामने की जाने वाली निंदा भी स्वयं का नुकसान करती है।क्योंकि निंदा करने वाला जब अपमानजनक बात सामने वाले को कहता है तो वो सबसे पहले खुद का नुकसान करता है।इसलिए वैसे तो निंदा बहुत ही घ्रणित व्यवहार है जिस पर नियंत्रण करना ही चाहिये।जब पीठ पीछे कोई किसी की निंदा करता है तो वो खुद के पाप तो बढ़ा ही लेता है ,साथ मे सामने वाले के पाप भी अपने सिर पर चढ़ा लेता है।
निंदा एक ऐसा गंदा परफ्यूम है जिसकी दुर्गन्ध से आदमी खिंचा चला आता है।एक इंसान किसी की निंदा का विषय छेड़ देता है तो सामने वाला न चाहते हुए भी निंदा करने पर विवश हो जाता है या सुनने के लिए विवश हो जाता है।निंदा से बचना बहुत ही कठिन काम है लेकिन प्रयास करने पर हम उस पर नियंत्रण पा सकते है।निंदा से बचने का एक ही उपाय है कि निंदा सुनने वाला निंदा करने वाले को नजरअंदाज करने लग जाये तो काफी हद तक इससे बचा जा सकता है।
निंदा करके इंसान कभी खुश नहीं रह पाता है।निंदा करने के बाद जो अशांति मिलती है वो हमारे जीवन की सुख शांति मे भी बाधक बनती है।इसलिए हम सब ये कोशिस करे कि इससे बच कर अपने और अपने आस पास के वातावरण को सकारत्मक बनाये।
निंदा की तरह ही तारीफ भी दो तरह की होती है। एक वो जो सामने की जाए और एक वो जो पीठ पीछे की जाए।निंदा को हर तरह से बुरा बताया है पर तारीफ हर तरह से बुरी नही होती।हर इंसान को एक दूसरे की तारीफ करनी ही चाहिए।तारीफ से इंसान का प्रोत्साहन बढ़ता है।जहाँ निंदा को पीठ पीछे करने पर पाप माना है वही तारीफ को पीठ पीछे करने को पुण्य माना है।जब पीठ पीछे कोई किसी की तारीफ करता है तो वो उस शख्स के गुणों का ही बखान करता है जिससे वो स्वयं भी गुणवान बनता है और सामने वाले को और अधिक गुणवान बना देता है।क्योंकि पीठ पीछे की हुई तारीफ एक सकारात्मक भाव है जो कभी नुकसान नहीं करेगा।
सामने की जाने वाली तारीफ मे फायदा भी है और नुकसान भी है।जब इंसान के किसी कार्य की तारीफ उसके सामने की जाती है तो उसके अंदर तारीफ करने वाले के प्रति एक आदर का भाव आ जाता है,वो पहले से और ज्यादा अच्छा बनने की कोशिश करता है, लेकिन ये भाव सबमें नहीं आता।कई लोग अपनी तारीफ सुनकर अभिमानी हो जाते है और वो सोचने लगते है कि उनके जैसा कार्य और कोई कर ही नहीं सकता।फिर धीरे धीरे उनमें हर चीज को प्रदर्शित करने का भाव आ जाता है।कभी वो अपनी सुंदरता का प्रदर्शन करेगा,कभी वो अपने वैभव का प्रदर्शन करेगा तो कभी किसी चीज का।क्योंकि वो एक तारीफ उसके अंदर अनेक तारीफ सुनने का लालच पैदा कर देती है।
इस तरह धीरे धीरे वो तारीफ इंसान के समस्त गुणों को छीन लेता है।इसलिए तारीफ को अपने सिर पर कभी नहीं चढ़ने देना चाहिए।तारीफ इतनी चतुराई से करनी चाहिए कि सामने वाले का उत्साह भी बढ़ जाये और उसमें अभिमान भी न आये।
दूसरी बात जो लोग दूसरों की तारीफ नहीं करते है वो भी अभिमानी कहलाते है।कई लोग अपनी प्रशंसा बहुत चाव से सुनते है और सामने वाले की प्रशंसा पर कोई रिएक्शन नहीं देते है।ऐसा करना भी सही नहीं होता है।इससे कई बार किसी की भावनाओं को भी ठेस पहुंच सकती है।
वैसे तो बड़े बड़े संत और ज्ञानी ने तो निंदा और प्रशंसा दोनों को ही अपने मार्ग की बाधा बताया है।एक मीठी बाधा है तो दूसरी कड़वी बाधा है।इसलिए वो लोग इन दोनों से बचकर ही रहते है।न वो किसी की निंदा करते है और न ही अपनी तारीफ की उम्मीद।ऐसे लोग कोई विरले ही होते है जो इन दोनों से बच पाते है।
Radha, mere paas to shabdha nahi hai is post ke liye . Bahut Bahut Sundar.
ReplyDelete