कृष्ण और सुदामा की मित्रता
कृष्ण और सुदामा की मित्रता-
कहाँ श्री कृष्ण जैसे तीनो लोको के स्वामी और कहाँ एक निर्धन ब्राह्मण।फिर भी इतनी गहरी मित्रता ।
सुदामा के निर्धन होने के पीछे दो कारण बताए है।एक तो किसी निर्धन ब्राह्मणी का श्राप दूसरा श्री कृष्ण के हिस्से के चने का सुदामा द्वारा खाना।
एक बार एक ब्राह्मणी थी।वो भिक्षा मांग कर खाती थी और हरी भजन किया करती थी।एक दिन वो पूरा दिन भिक्षा मांगती रही पर उसे कुछ न मिला।शाम होते होते उसको किसी ने एक पोटली मे बांधकर चने दिए।वो पोटली लेकर घर आई तब तक रात हो चुकी थी।उसने सोचा कि अब तो रात हो गई है,इसलिए सुबह भगवान को भोग लगाकर ही चने ग्रहण करूँगी और वो सो गई।उसी रात को ब्राह्मणी के घर मे चोर घुस गए।चोरों ने उस पोटली मे धन समझकर ले ली और वहाँ से भाग गए।ब्राह्मणी ने उन चोरों को श्राप दिया कि जो भी मेरे चने खायेगा वो निर्धन हो जायेगा।
इधर चोर भागते भागते उस सांदीपनि आश्रम मे गए जहाँ श्री कृष्ण और सुदामा की शिक्षा चल रही थी।
वो चोर उस आश्रम मे छुप गए।जब आश्रम के लोगो को उन चोरों के बारे मे पता चल गया तो चोर अपने आप को बचाने के लिए वहाँ से भागे।भागते भागते उन चोरों के हाथ से वो पोटली नीचे गिर गई।जब आश्रम की गुरु माँ को वो पोटली मिली तो उन्होंने उसे संभाल कर रख दी।अगले दिन सुबह जब श्री कृष्ण और सुदामा वन मे लकड़ी काटने जा रहे थे तो गुरु माँ ने वो ही पोटली उन दोनों को दी और कहा कि जब भूख लगे तब दोनो खा लेना।श्री कृष्ण और सुदामा को लकड़ी काटते काटते देर हो गई और अचानक तेज बारिश हो गई।वो दोनो एक पेड़ पर चढ़ गए।श्री कृष्ण अलग डाली पर थे और सुदामा अलग डाली पर थे।सुदामा को बहुत भूख लगी तो उन्होंने वो चने वाली पोटली खोली और सारे चने खा लिए।सुदामा को अपनी दिव्य शक्ति से उस ब्राह्मणी के श्राप का पता चल गया था,इसलिए उन्होंने सोचा कि अगर कृष्ण ने ये चने खा लिए तो सम्पूर्ण सृष्टि निर्धन हो जाएगी।अपने मित्र पर कोई आपत्ति न आये,यही सोचकर सुदामा ने सारे चने खुद ही खा लिए।
इस विषय में कुछ का ये भी मत है कि श्री कृष्ण के हिस्से का खाने के कारण ही सुदामा को दरिद्रता का सामना करना पड़ा।इसलिए यो भी कहा जाता है कि कभी किसी के हिस्से का नहीं खाना चाहिए।भगवान की लीला को समझ पाना कठिन है,पर इतना अवश्य है कि समय आने पर श्री कृष्ण अपने मित्र सुदामा की दरिद्रता को कैसे दूर करते है,उसी दृश्य को मैं आगे बताने जा रही हु-
सांदीपनि आश्रम से शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब श्री कृष्ण और सुदामा युवा हो जाते है तो वे अपने अपने घर चले जाते है।श्री कृष्ण भी विवाह करके अपनी रानियों के साथ द्वारिका नगरी मे राज्य करते है और सुदामा भी एक सुशीला नाम की कन्या से विवाह कर लेते है।पर इस बीच उनका मिलना नहीं हो पाता है।
सुदामा एक ब्राह्मण था,इसलिए वो भिक्षा मांगकर ही अपनी आजीविका चलाता था।इसी तरह वो अपना गुजारा चला रहा था,उसके दो बच्चे भी हो गए थे।लेकिन वो दिन दिन गरीब ही होता जा रहा था।एक समय ऐसा आया कि उसको भिक्षा भी मुश्किल से मिलने लगी,कई बार तो खाली हाथ ही घर लौटने लगा।उसकी पत्नी और बच्चे भी भूखे मरने लगे।तब एक दिन अत्यंत दुखी होकर सुदामा की पत्नी ने सुदामा को कहा कि,तुम अपने मित्र श्री कृष्ण के पास जाओ।वो जरूर कुछ करेंगे।
अपनी पत्नी की बात मानकर सुदामा श्री कृष्ण से मिलने निकल गया।जाते जाते सुदामा की पत्नी सुशीला पड़ोसी से कुछ चावल मांग कर लाई और उसे पोटली मे बांधकर सुदामा को दिए और कहा कि ये चावल अपने मित्र को भेंट स्वरूप दे देना।सुदामा जब द्वारिका पहुंचे तो श्री कृष्ण के महल के बाहर खड़े द्वारपालों ने उन्हें अंदर जाने से रोका।जब सुदामा ने अपने आप को कृष्ण का मित्र कहा तो सभी द्वारपाल उसकी हँसी उड़ाने लग गए।तब सुदामा ने उन द्वारपालों से कहा कि अरे द्वारपालों ,जाकर कन्हैया से कह दो कि तेरे दर पर सुदामा आया है।
द्वारपालों ने जैसे ही श्री कृष्ण तक ये संदेश पहुँचाया कि सुदामा का नाम सुनते ही श्री कृष्ण नंगे पावँ दौड़ते हुए द्वार तक चले गए।
वहीं द्वार पर अपने मित्र को गले लगाया,इस दृश्य को देखकर महल के सभी लोगो की आंखे स्तम्भ सी रह गई और आश्चर्य से भर गए कि एक फटे हाल मे आया हुआ ब्राह्मण द्वारिकाधीश का मित्र कैसे हो सकता है?
श्री कृष्ण अपने मित्र सुदामा को अपने महल मे ले गए और उन्हें अपने सिंहासन पर बैठाकर उनके चरण धोए।
श्री कृष्ण के प्रेम रूपी अश्रु जब सुदामा के चरणों मे पड़ रहे थे तो रुक्मणी और दूसरी रानिया भी अचंभित हो गई कि पूरे संसार के अश्रु जिनके चरणों मे गिरते है आज जगत पति के अश्रु एक साधारण ब्राह्मण के चरणों मे गिर रहे है।रुक्मणी ने श्री कृष्ण जी से इस अनोखे दृश्य का राज पूछा तो श्री कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा का परिचय दिया।फिर तो रुक्मणी जी ने भी सुदामा का दिल से स्वागत किया और उनके आतिथ्य मे कोई कमी नहीं रखी।श्री कृष्ण के इस वैभव को देखकर सुदामा नेअपनी पत्नी द्वारा दिये हुए उस चावल की पोटली को छुपाया, लेकिन कृष्ण जी को ये बात पता चल गई और उन्होंने सुदामा से वो पोटली छीन ली और कहने लगे कि मेरी भाभी ने मेरे लिए जो भेंट दी है,वो छुपा क्यों रहे हो।श्री कृष्ण ने तुरंत चावल की एक मुट्ठी खा ली,दूसरी भी खा ली और जब तीसरी मुट्ठी खाने लगे तो रुक्मणी ने हाथ पकड़ लिया क्योंकि वो अपने श्री कृष्ण को जानती थी कि ये दीनानाथ जब भक्त की छोटी से छोटी चीज के भी ऋणी हो जाते है तो अपने सुदामा पर तो ये तीनों लोक न्यौछावर कर देंगे।
उसके बाद कुछ दिन द्वारिका रहने के बाद सुदामा ने वापस अपने घर जाने के लिए श्री कृष्ण से विदाई ली,लेकिन उसका स्वाभिमान अपने मित्र से अपनी दुर्दशा बताने के लिए असमर्थ हो रहा था।
सुदामा ने अपने मित्र कृष्ण को कुछ नहीं बताया और अपने घर की ओर प्रस्थान कर गया,रास्ते मे सोच रहा था कि घर जाकर अपनी पत्नी को क्या जवाब दूंगा।लेकिन श्री कृष्ण तो अंतर्यामी थे,उन्होंने सुदामा के घर पहुंचने से पहले ही उसकी सारी गरीबी दूर कर दी,उसकी झोपड़ी को महल बना दिया यहाँ तक कि उसकी पूरी नगरी के एक एक घर को महल बना दिया,जिसे बाद मे सुदामा नगरी के नाम से जाना जाने लगा।जब सुदामा घर पहुंचे तो उनको विश्वास ही नहीं हुआ कि वो अपनी नगरी मे पहुंचे है।
श्री कृष्ण ने अपनी सच्ची मित्रता निभाई और अपने मित्र का स्वाभिमान भी नहीं गिरने दिया।अगर श्री कृष्ण सुदामा को ये सब अपने महल मे ही दे देते तो सुदामा अपने आप को अपने मित्र के सामने छोटा समझने लगते,इसलिए भगवान ने मित्रता को छोटे बड़े के भेद से परे रखकर सुदामा के दुख दूर किये,जिसे इतिहास मे प्रेम कहा गया।ऐसी मित्रता संसार मे कभी दूसरी नहीं हुई।युगों युगों तक कृष्ण सुदामा के प्रेम की मिसाल दी जाएगी।
विशेष- इस प्रसंग मे एक भक्त और भगवान के निश्चल प्रेम को दर्शाया गया है।जब जब भक्त इस संसार मे अकेला, निसहाय और अपमानित होकर कृष्ण की शरण मे जाता है,तब तब भगवान अपने भक्त के लिए दौड़कर उसका हाथ पकड़ा करते है।बस आवश्यकता है एक सच्चे प्रेम की।भगवान कभी किसी बन्धन मे नहीं बंधते पर एक प्रेम ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है जिसके बंधन मे वो बंध ही जाते है।
कृष्ण और सुदामा की मित्रता एक अनन्य प्रेम का ही उदाहरण है।
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