वो भूली दास्ताँ, और आज का सच


आज चारों तरफ कोरोना का संकट मंडरा रहा है,लोग अपने अपने घरों मे बंद है।

ऐसे समय मे हर इंसान अपने अतीत की यादों मे खोया हुआ है।वो बिता हुआ समय और उसकी स्मृतियां आज आंखों के सामने एक फ़िल्म बन कर खड़ी है।कोई अपने बचपन की यादों मे खोया हुआ है तो कोई अपने दोस्त और अपने परिवार की यादों मे खोया हुआ है।ऐसे समय मे हर इंसान को अपने संस्कार और अपने माता पिता से मिली सीख याद आ रही है,क्योंकि संकट के समय अगर सबसे ज्यादा याद आती है तो अपने माता पिता की,जो हमारे प्रेरणास्त्रोत होते है।कहते है माता पिता जो कुछ भी हमे सिखाते है जीवन के किसी न किसी मोड़ पर वो शिक्षा हमारे काम आती है।मेरे पापा की कुछ शिक्षाएं भी ऐसी ही थी जो आज के इस संकट की घड़ी मे शत प्रतिशत सत्य हो रही है।उनकी कही हुई बहुत सी बातें आज सत्य दिखाई दे रही है।मैं उनकी उन्ही बातों को आपके साथ अपने ब्लॉग मे शेयर करने जा रही हु।सबसे पहले मैं अपने बचपन के कुछ स्वर्णिम पलों की ओर ले चलती हु।बचपन का नाम सुनते ही हर इंसान के ह्रदय पटल पर एक सुखद अहसास हिलोरे लेने लगता है।आज से 30 साल पहले की बात बताती हु।उस समय मेरी उम्र 10 साल की थी।मेरे पापा का कठोर अनुशासन हम सब भाई बहनों के लिए एक डंडा था,जो कभी भी किसी को भी पड़ जाता था।मेरे पापा के चेहरे पर ही इतना तेज था कि कोई भी उनकी तरफ आंख उठा कर तो बात ही नहीं कर सकता था।उनके हिसाब से तो हर चीज इतनी व्यवस्थित होती थी कि उनकी रखी हुई किसी चीज को कोई हिला भी देता था तो उन्हें पता लग जाता था।उनका प्यार हमेशा उनके अनुशासन के नीचे दबा रहता था,जो कभी दिखाई नहीं देता था।वो उस जमाने मे भी हम बच्चो के लिए बहुत सी चीजें खरीद कर लाते थे।

कभी मेला लगता था तो केवल मेला दिखाने के लिए वो स्पेशल छुट्टी लेकर आते थे।जब कभी त्योहार होता तो दो दिन पहले ही त्यौहार का सब सामान लाकर रख देते थे।
उस समय हर एक चीज की इतनी कीमत होती थी जिसकी अनुभूति आज हो रही है।मुझे आज भी याद है जब कभी संतरा घर मे आता था तो उस एक संतरे से एक एक फाड़ हम सब भाई बहनों को मिलता था।मम्मी संतरा छीलते थे तो हम चारो भाई बहन गोला बनाकर बैठ जाते थे और एक एक फाड़ के लिए अपनी बारी की प्रतिक्षा करते थे।उस एक संतरा मे जो प्यार और आनंद था वो आज  हजार चीज खाकर भी नहीं मिलता है,यही फर्क है आज मे और उस समय मे।इससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आनंद अधिक मे नहीं है,आनंद अभाव मे है।
उस समय पूरे मोहल्ले मे एक ही घर मे टीवी था।हम सब रामायण देखने के लिए पड़ोसी के घर जाया करते थे,जो पापा को पसंद नहीं आता था।इसलिए कुछ समय बाद पापा एक छोटी ब्लेंक एंड वाइट टीवी लेकर आये।उस टीवी को पापा अपनी साईकल के पीछे बांधकर लाये थे।

उसके बाद हम अपने ही घर पर टीवी देखते थे वो भी केवल रविवार को।पापा उस टीवी के किसी बटन को हाथ नहीं लगाने देते थे।उन्होंने एक निश्चित वॉल्यूम फिक्स कर रखा था,जिसको हम चाहकर भी नहीं बदल सकते थे।उसी वॉल्यूम पर हम टीवी देखते थे।पापा जब ड्यूटी से घर आते थे तो हम उनके आने से आधे घंटे पहले घर को पूरा व्यवस्थित करके सब अलग अलग कोने मे पढ़ने के लिए बैठ जाते थे,क्योंकि कमरा तो एक ही था।

शाम को पापा हमारी हर एक कॉपी चेक करते थे।एक भी कॉपी मे टीचर का लिखा हुआ कोई भी नोट पसंद नहीं था।उनके हिसाब से तो कॉपी एकदम साफ सुथरी और अच्छी लिखावट  के साथ होनी चाहिए।
जब पापा खाना खाने बैठते थे तो उनके खाने से पहले उनके सामने नमक और पानी का लौठा रखना पड़ता था और अगर किसी दिन ऐसा नहीं हुआ तो मम्मी को और मुझे तो बहुत डांट पड़ती थी।
उस समय घर मे शौचालय भी नही था,इसलिए सुबह जल्दी उठकर शौच के लिए बाहर जाना पड़ता था।पापा को अखबार पढ़ने का बहुत शौक था,इसलिए उस जमाने मे भी मेरे घर पर अखबार जरूर आता था।पापा की ड्यूटी का टाइम 7 बजे था तो अखबार वाले को 6 बजे आना ही होता था।किसी दिन अखबार वाला टाइम पर नहीं आता तो पापा उसको डांटते और कहते कि 7 बजे अखबार क्या तेरा बाप पढ़ेगा।पापा के कठोर वचन सुनकर अखबार वाला इतना डर गया कि उसके बाद तो उसने कभी 6 बजे से देरी नहीं करी।
हर रविवार को पापा दादाजी के गावँ जाते थे।हम उस दिन बहुत खुश होते थे,क्योंकि वो दिन हमारी आजादी का दिन होता था,जब पापा की डांट और पकड़ से मुक्ति मिलती थी।जिस दिन पापा को गावँ जाना होता था उस दिन पापा सुबह  सुबह ही अपनी राजदूत मोटर साईकल को चमकाना शुरू कर देते थे।

सबसे पहले पापा उसके पुर्जे पुर्जे को चेक करते थे।कई बार तो वो स्टार्ट ही नहीं होती थी तो वो खुद ही मेकेनिक बनकर उसको ठीक करते थे।लेकिन उस समय बहुत बुरा लगता था जब आधे दिन तक पापा उस मोटर साईकल को ठीक करने मे लगा देते थे  और हम सब भाई बहन इस बात का इंतजार करते थे कि कब पापा जाए और हम चेन से मस्ती कर सके।
जब गर्मी का मौसम होता था तब शाम को खाना खाकर सभी पड़ोसी अपने अपने घर के बाहर बाते करने के लिए इकट्ठे हो जाते थे और देर रात तक बहुत सारी बाते करते थे,आज न वो लोग है और न ही वो बातें।उस समय पड़ोस मे किसी की शादी होती थी और मम्मी जब दूल्हे या दुल्हन के घर वालो को हमारे यहां खाने पर बुलाते थे तो वो दिन हमारे यहां एक उत्सव होता था।मेरे पापा घर के बाहर सड़क पर ही कंडे जलाते और चूरमा बाटी बनाते थे

पापा बहुत ही स्वादिष्ट चूरमा बाटी बनाते थे।
मेरे घर के पास ही मेरी सहेली के पापा का स्कूल था।15 अगस्त पर उस स्कूल मे बहुत अच्छा कार्यक्रम होता था,हम सब पड़ोसी उस प्रोग्राम को देखने जाते और जब अंत मे मीठी बूंदी प्रसाद स्वरूप दी जाती थी तो हम बारी बारी से लाइन मे लगकर वो प्रसाद लाते थे।उस समय कोई जिझक या शर्म नहीं आती थी,हर जगह अपनापन लगता था।
मेरे घर मे उस समय एक कमरा था फिर भी पड़ोसी के कई बच्चे मेरे घर पर पढ़ने आते थे।

सबकी किताबे और कॉपियां मेरे उस छोटे से कमरे मे ऐसे फैली हुई रहती जैसे कोई ट्यूशन सेंटर चल रहा हो,पर फिर भी न मेरी मम्मी को कोई परेशानी होती थी और न ही उन बच्चो की मम्मी को ।मेरे घर पर रोज गावँ से कोई न कोई मेहमान आते रहते थे।उस समय मुझे पढ़ने के लिए जगह नहीं मिलती थी तो मैं ओर मेरा छोटा भाई,दोनो छत पर एक हल्की लाइट के उजाले मे पढ़ते थे।एक हाथ से किताब पकड़ते और दूसरे हाथ से बार बार मच्छरों को भगाते रहते थे।एक टेबल पंखा था,वो भी मेहमान के आने पर हमें नहीं मिल पाता था।और जब किसी दिन मेहमान नहीं आते और वो टेबल पंखा हमे मिल जाता तो उसकी हवा मे सोने के लिए हम भाई बहन लड़ते रहते थे।

एक कहता पंखा मेरी तरफ कर तो दूसरा कहता मेरी तरफ।लेकिन तभी अचानक बिजली चली जाती थी और वो झगड़ा वहीं धरा रह जाता,अब किसी पुरानी किताब का गत्ता काटकर पूरी रात उसकी हवा करते रहते थे,क्योंकि उस समय अगर एक बार बिजली चली गई तो पूरी रात वापस नहीं आती थी।इतनी गर्मी और ऊपर से मच्छरों ने इतना आतंक मचा रखा था कि पापा तो पूरी रात धुंआ करते रहते थे और हम लोग चद्दर को गीली कर करके उसको ओढ़ कर सोते थे।कभी कमरे मे तो कभी छत पर, पूरी रात जैसे तैसे निकलती थी।
रोज शाम को खाना खाते समय पापा का एक लेक्चर होता था,जिसमे पापा हमें जीवन के अनुभव सिखाते थे,उस समय उस लेक्चर को सुनना हमारे लिए बहुत सिर दर्द का काम था,पर पापा की सीख मे इतना तेज था कि उनकी कोई सिखाई हुई सीख ऐसी नहीं जो हम भाई बहनों ने नहीं अपनाई हो।

आज उनकी दी हुई सीख  हमें जीवन के हर मोड़ को पार करने में सक्षम रही।
वो कहते थे कि इंसान को हर कार्य आना चाहिए ,ताकि कठिन से कठिन समय मे भी इंसान कभी निराश न हो।

इसलिए वो हर बार स्कूल की छुट्टी पर हमें गावँ ले जाते और खेत का हर कार्य सिखाते थे।वो कहते थे कि मेहनत से जी चुराने वाला सबसे बड़ा चोर होता है।इस शरीर को जब एक दिन जलना ही है तो इसको ज्यादा अवेर कर नहीं रखना बल्कि जितना हो सके इसे काम मे लेना चाहिए।उनकी इसी सीख के कारण आज हम किसी के घर भी चले जाते है तो हमसे बैठे नहीं रहा जाता,जहाँ जाते है वहाँ हम काम करने लग जाते है।वो हमेशा अपने बाल भी स्वयं काटते थे।घर की हर छोटी बड़ी चीज वो स्वयं रिपेयर करते थे और हमे भी सिखाते थे।वो पूरे साल भर के इकट्ठे गेंहू लाकर उन्हें कोठियों मे रखते थे और हमे कहते थे कि फैशन की चीजें घर मे न हो तो कोई बात नही,पर अन्न हमेशा घर मे बचाकर रखो ताकि किसी भी संकट मे हम अगर बाहर न जा सके तो कभी भूखे न मरना पड़े।वो कहते थे कि कभी भी जीवन मे शरीर को इतना किसी चीज का आदि मत बनाओ कि कभी न मिले तो इंसान उसको झेल न सके।वो कहते थे कि फैशन से इंसान सुंदर नहीं बनता है,इंसान उसके अच्छे स्वास्थ्य से सुंदर दिखता है और अच्छा स्वास्थ्य अच्छा खाने से और मेहनत करने से बनता है।
उन्हें कभी भी कर्जा करना पसंद नहीं था।वो हमें कहते थे कि अगर तुम्हारे पास 1 रुपैया हो तो बाजार से कुछ खरीदने की चाह रखना पर कभी किसी से उधार लेकर अपने शौक पूरे मत करना।वो कहते थे कि जब तक जरूरी न हो,कभी कर्जे मे काम मत करना,क्योंकि कर्जा इंसान की नींद चैन छीन लेता है।अपनी आवश्यकता को सीमित रखना ,और अपने बजट के अनुसार ही खर्चे करना ताकि हमारी सुख शांति हमेशा बनी रहे।

ईमानदारी इंसान का सबसे बड़ा धन है।कभी लालच मे आकर अपने इस धन को नष्ट मत करना क्योंकि लालच से आदमी कुछ ही समय के लिए खुश रह सकता है लेकिन ईमानदारी से आदमी जीवन भर खुश रह सकता है।
वो कहते थे कि कम खाना,पर परदेश मत जाना।

अपने देश मे रहकर भी आदमी तरक्की कर सकता है।कोई भी छोटे से छोटा पेपर हो या रसित, उसको हमेशा संभाल कर रखना चाहिए,क्योंकि जीवन के किस मोड़ पर एक छोटी सी रसित भी हमारे काम आ जाये । 

 साफ सफाई का तो इतना था कि बिना हाथ धोए तो पानी की मटकी पर हाथ ही नहीं लगाने देते थे।कोई भी बाहर से चीज आती तो पहले उन्हें पानी से धुलवाते थे,उसके बाद ही घर के अंदर ले जाने देते थे,और ये आदत मम्मी पापा दोनो को थी।मम्मी तो हमारे रोज के बिस्तर को भी धूप मे डलवाते थे।कई बार इन सब कठोर नियमो से बहुत चिढ़ मचती थी,पर आज वो सब चीजें सत्य होती हुई दिख रही है।   मेरे पापा को हाथ मिलाना बिल्कुल पसंद नहीं था।वो कहते थे कि ये सब विदेशी तरीके है,अपने देश के संस्कार दोनो हाथ जोड़कर प्रणाम करने का है तो उसी को अपनाओ।

आज इस कोरोना संकट के समय मैने जब पुरानी बातें याद करी तो सब कुछ वैसे ही नजर आ रहा है,जैसा पापा ने सिखाया था।आज हर चीज को धोकर उपयोग मे लाने की,हाथ न मिलाने की,बार बार हाथ धोने की जो शिक्षा चारो तरफ दी जा रही है वो बरसो पहले मेरे पापा ने हम सबको दे दी थी।शायद उनकी अंतरात्मा को ये ज्ञान हो गया था कि एक दिन ऐसा आएगा जब उनकी दी हुई सीख उनके बच्चो के बहुत काम आएगी और तब शायद उस संकट मे वो हमसे बहुत दूर जा चुके होंगे।आज उनका शरीर हमारे पास भले ही नहीं है,लेकिन उनकी सिखाई हुई हर सीख के रूप मे वो आज भी हमारे बीच मे उपस्थित है,जो अदृश्य रूप मे ही सही,पर बार बार हमें आगाह करते रह रहे है
धन्य है वो बच्चे जिनके माता पिता अपने बच्चो को संस्कार रूपी धन सौंपते है।मैं और मेरे भाई बहन अपने आप को बहुत खुशनसीब मानते है कि हमे वो असली धन प्राप्त हुआ जो जीवन के अंतिम क्षण तक कोई हमसे छीन नहीं सकता।
       

  समय बहुत बड़ी शक्ति है।समय ही हमें  बहुत कुछ सिखाता है।समय के संकेत को समझकर हर इंसान को उससे सीख लेनी चाहिए ।जब जब इंसान प्रकति के विपरीत आचरण करने लगता है,बेईमानी करता है।अधिक से अधिक पाने की चाह मे गलत रास्ता अपनाता है,झूठ बोलता है।अपने से नीचे वालो का अपमान करता है।किसी को धोखा देता है,तब तब प्रकति नाराज होकर इसी प्रकार आचरण करती है और जिसका फल सम्पूर्ण विश्व को भुगतना पड़ता है।
      यही कोरोना का सच है।

Comments

  1. एकदम सही लिखा जीजी ।अपने माता पिता की अच्छी शिक्षा को अपनाने के कारण ही आज हम खुश है
    जय हो माँ पिता

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