राजा दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रेम कहानी
राजा दुष्यन्त और शकुंतला की प्रेम कहानी
एक समय हस्तिनापुर मे राजा दुष्यन्त राज किया करते थे।एक बार राजा दुष्यन्त शिकार खेलते हुए जंगल मे गए।उसी जंगल मे कण्व ऋषि का आश्रम था।शिकार से लौटते हुए राजा ने सोचा कि ,मैं कण्व ऋषि के दर्शन कर लूं।राजा ने कण्व ऋषि के आश्रम के पास जाकर आवाज लगाई तो आश्रम से एक सुंदर कन्या बाहर आई।राजा दुष्यन्त ने उस कन्या से पूछा कि,क्या मैं कण्व ऋषि के दर्शन कर सकता हु?इस पर उस कन्या ने अपनी मधुर वाणी से राजा को कहा कि,अभी तो मुनिवर कहीं बाहर गए हुए है।कुछ समय पश्चात लौटेंगे।राजा दुष्यन्त शकुंतला के रूप और वाणी से अत्यंत प्रसन्न हो गए।अब तो राजा वहीं जंगल मे डेरा डालकर रहने लगे और प्रतिदिन शकुंतला को देखते रहते।राजा दुष्यन्त को शकुंतला से प्रेम हो गया और शकुंतला भी राजा से प्रेम करने लगी।एक दिन राजा दुष्यन्त ने शकुंतला के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा।शकुंतला ने उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।विवाह से पहले शकुंतला ने अपना पूरा परिचय राजा दुष्यन्त को बताया।
एक बार विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे।उनकी तपस्या को भंग करने के लिए इंद्र ने अप्सरा मेनका को पृथ्वी पर भेजा।मेनका ने तरह तरह से विश्वामित्र का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया और अंततः मेनका सफल हुई।विश्वामित्र मेनका के रूप पर मोहित हो गए और अपनी तपस्या को भंग कर दी।विश्वामित्र ने मेनका से विवाह कर लिया।कुछ समय बाद उनके एक पुत्री हुई ,लेकिन अपनी पुत्री को जंगल मे छोड़कर मेनका स्वर्ग लोक वापस चली गई और विश्वमित्र हिमालय पर तपस्या करने चले गए।एक शकुन्त नामक पक्षी ने शकुंतला की रक्षा करी थी,इसीलिए कण्व ऋषि ने उसका नाम शकुंतला रखा और उसे अपनी पुत्री बनाकर अपने आश्रम ले आये जहाँ वो बड़ी हुई।
इस तरह शकुंतला ने अपना पूरा परिचय राजा दुष्यन्त को सुनाया,उसके बाद दोनों ने जंगल मे ही गंधर्व विवाह कर लिया,परंतु कण्व ऋषि उस समय लंबी तीर्थ यात्रा पर थे,इसलिए उनकी अनुपस्थिति मे ही इन दोनों ने विवाह किया।विवाह के बाद कुछ समय तक तो राजा दुष्यन्त अपनी पत्नी शकुंतला के साथ जंगल मे ही रहे,लेकिन उसके बाद राज्य का कार्य भार संभालने के लिए राजा को वापस हस्तिनापुर जाना पड़ा।राजा ने शकुंतला को वचन दिया कि वो शीघ्र ही उसे अपनी महारानी बनाकर हस्तिनापुर ले जाएंगे।राजा ने जाते वक्त शकुंतला को निशानी के तौर पर अपनी एक अंगूठी दी।
राजा के जाने के बाद शकुंतला राजा दुष्यन्त की ही याद मे खोई रहती।उसे किसी की सुध ही नहीं रहती थी।एक दिन इसी तरह वो यादों मे खोई हुई थी कि उसके आश्रम के द्वार पर महर्षि दुर्वासा पधारे।महर्षि दुर्वासा की आवाज सुनकर भी जब शकुंतला का ध्यान नहीं टूटा तो दुर्वासा मुनि को क्रोध आया और क्रोध मे आकर उन्होंने शकुंतला को श्राप दे दिया और कहा कि,जिसकी याद मे तू इतना खोई हुई है वो तुरंत तुझे भुला देगा।महर्षि के तीखे स्वर से शकुंतला का ध्यान टूटा और उसने दुर्वासा मुनि से क्षमा मांगी।
दुर्वासा ऋषि को शकुन्तला पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि,मैं अपना श्राप तो वापस नहीं ले सकता,लेकिन एक वरदान देता हूं कि जिस समय तुम अपनी कोई निशानी अपने पति को दिखाओगी ,उस समय उसको सब याद आ जायेगा।
कुछ दिनों बाद ऋषि कण्व अपनी तीर्थयात्रा से वापस अपने आश्रम लौटे तो उनको भी शकुन्तला के प्रेम विवाह के बारे मे पता चला।उन्होंने शकुंतला को कहा कि,एक विवाहित पुत्री को ज्यादा दिन अपने पिता के घर मे नहीं रहना चाहिए।इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों के साथ शकुंतला को हस्तिनापुर भेजने का निश्चय किया।जब शकुंतला हस्तिनापुर जा रही थी तो रास्ते मे समुंदर पार करते समय अचानक शकुंतला के हाथ से राजा दुष्यन्त की दी हुई अंगूठी पानी मे गिर गई।
शकुन्तला जब राजा दुष्यन्त के राज दरबार मे पहुंची और अपना परिचय दिया तो राजा ने शकुंतला को पहचानने से इंकार कर दिया।राजा दुष्यन्त ने शकुंतला को नहीं अपनाया तो शकुंतला समझ गई कि ये सब दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण हो रहा है।शकुंतला अब कण्व ऋषि के पास नहीं जाना चाहती थी क्योंकि वो अब गर्भवती भी हो चुकी थी।उसने अपनी माता मेनका का ध्यान किया।अप्सरा मेनका प्रकट हुई।शकुंतला ने माता से अपनी समस्या कही।मेनका अपनी पुत्री शकुंतला को लेकर कश्यप ऋषि के आश्रम मे गई और उनके संरक्षक मे छोड़कर चली गई।शकुन्तला ने कश्यप ऋषि के आश्रम मे ही एक सुंदर बालक को जन्म दिया।
उधर जिस समुन्द्र मे शकुंतला की अंगूठी गिरी थी,उस अंगूठी को एक मछली ने निगल लिया था।जब मछुआरे ने मछली का पेट चीरा तो वो अंगूठी उसके पेट से निकली।मछुआरा उस अंगूठी को लेकर राजा के पास गया और उन्हें भेंट कर दी।जैसे ही राजा ने अंगूठी को देखा कि उन्हें शकुन्तला और उनके विवाह की सारी घटना याद आ गई ।राजा ने शकुन्तला को सब जगह ढूंढा पर उसका कहीं पता न चला।
कुछ समय बाद देवासुर संग्राम मे राजा दुष्यन्त युद्ध लड़ने गए।युद्ध के बाद जब राजा अपनी राजधानी हस्तिनापुर लौट रहे थे तब रास्ते मे उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम मिला।राजा कश्यप ऋषि से मिलने के लिए रुक गए।तभी उन्होंने देखा कि कश्यप ऋषि के आश्रम के बाहर एक छोटा सा बालक शेर के बच्चों के साथ खेल रहा था।राजा उस साहसी बालक को देखकर अत्यंत खुश हुए और उसे अपनी गोदी मे उठा लिया।जैसे ही राजा ने उस बालक को अपनी गोद मे उठाया कि बालक के हाथ मे बंधा एक धागा टूट कर नीचे गिर गया।वहीं पर शकुन्तला की एक सहेली ने ये सब देखा तो वो समझ गई कि ये राजा ही इस बालक के पिता है,क्योंकि बालक के जन्म के समय ही इस धागे का यही रहस्य था कि जब भी इस बालक के पिता इसको अपनी गोद मे उठाएंगे तभी ये धागा अपने आप खुल जायेगा।शकुन्तला की सहेली ने जाकर शकुन्तला को भी ये समाचार दिया।शकुन्तला तुरंत आश्रम के बाहर आती है और राजा दुष्यन्त उसे पहचान लेते है।कश्यप ऋषि की आज्ञा से राजा दुष्यन्त अपनी पत्नी शकुन्तला और अपने पुत्र के साथ हस्तिनापुर चले जाते है।राजा दुष्यन्त और शकुन्तला के उस होनहार पुत्र का नाम भरत था,जो आगे चलकर हस्तिनापुर के महान प्रतापी राजा बने।
ऐसा माना जाता है कि इन्हीं राजा भरत के नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा।
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